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मरहम ज़ख़्म-ए-जिगर हो जाए | शाही शायरी
marham zaKHm-e-jigar ho jae

ग़ज़ल

मरहम ज़ख़्म-ए-जिगर हो जाए

अब्दुल मजीद हैरत

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मरहम ज़ख़्म-ए-जिगर हो जाए
एक ऐसी भी नज़र हो जाए

इक इशारा भी अगर हो जाए
इस शब-ए-ग़म की सहर हो जाए

सुब्ह ये फ़िक्र कि हो जाए शाम
शाम को ये कि सहर हो जाए

हो न इतना भी परेशाँ कोई
कि ज़माने को ख़बर हो जाए

यूँ तो जो कुछ भी किसी पर गुज़रे
दिल न अफ़्सुर्दा मगर हो जाए

फ़िक्र-ए-फ़र्दा भी करेंगे 'हैरत'
पहले ये शब तो बसर हो जाए