मरहले सख़्त इम्तिहान के हैं
चल पड़े हम भी सीना तान के हैं
आसमाँ ज़ेर-ए-पर हैं जो ताइर
मेरी ही सतह की उड़ान के हैं
मुश्तइल रहने दें इन्हें कि बुझाएँ
ये चराग़ अपने ही मकान के हैं
कौन कहता है शब को शब न कहो
कुछ क़रीने भी तो ज़बान के हैं
आदमी अब कहाँ ज़मीं पे रहे
सब फ़रिश्ते ही आसमान के हैं
जिन के शब-ख़ूँ से है दुखी ये ज़मीं
जाने वो लोग किस जहान के हैं
ज़द पे हम हैं तो ज़द पे तुम भी हो
तीर हम भी कड़ी कमान के हैं
ग़ज़ल
मरहले सख़्त इम्तिहान के हैं
महशर बदायुनी

