मर भी जाऊँ तो कहाँ लोग भुला ही देंगे
लफ़्ज़ मेरे मिरे होने की गवाही देंगे
लोग थर्रा गए जिस वक़्त मुनादी आई
आज पैग़ाम नया ज़िल्ल-ए-इलाही देंगे
झोंके कुछ ऐसे थपकते हैं गुलों के रुख़्सार
जैसे इस बार तो पत-झड़ से बचा ही देंगे
हम वो शब-ज़ाद कि सूरज की इनायात में भी
अपने बच्चों को फ़क़त कोर-निगाही देंगे
आस्तीं साँपों की पहनेंगे गले में माला
अहल-ए-कूफ़ा को नई शहर-पनाही देंगे
शहर की चाबियाँ आदा के हवाले कर के
तोहफ़तन फिर उन्हें मक़्तूल सिपाही देंगे
ग़ज़ल
मर भी जाऊँ तो कहाँ लोग भुला ही देंगे
परवीन शाकिर