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मक़्तल से मेरा कासा-ए-सर कौन ले गया | शाही शायरी
maqtal se mera kasa-e-sar kaun le gaya

ग़ज़ल

मक़्तल से मेरा कासा-ए-सर कौन ले गया

नाज़िर सिद्दीक़ी

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मक़्तल से मेरा कासा-ए-सर कौन ले गया
उस तक ये दिल-ख़राश ख़बर कौन ले गया

चेहरे पे गर्द-ए-राह भी बाक़ी नहीं रही
मुझ से मिरा सुबूत-ए-सफ़र कौन ले गया

रास आ चली थी दिल की फ़ज़ा-ए-जुनून-ए-शौक़
बहका के मुझ को दश्त से घर कौन ले गया

बे-लौस दोस्ती के ज़माने कहाँ गए
सरमाया-ए-ख़ुलूस-ए-बशर कौन ले गया

ये देखने की कोई ज़रूरत नहीं रही
किस का हुनर था दाद-ए-हुनर कौन ले गया

घर से निकल पड़े हैं तो अब क्या ये देखना
रस्ते से साया-दार शजर कौन ले गया

दरिया वही है उस की रवानी वही मगर
रू-पोश था जो तह में गुहर कौन ले गया

आमाल अपने देख के ये तज्ज़िया भी कर
'नाज़िर' तिरी दुआ से असर कौन ले गया