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मक़ाम-ए-हिज्र कहीं इम्तिहाँ से ख़ाली है | शाही शायरी
maqam-e-hijr kahin imtihan se Khaali hai

ग़ज़ल

मक़ाम-ए-हिज्र कहीं इम्तिहाँ से ख़ाली है

अहमद निसार

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मक़ाम-ए-हिज्र कहीं इम्तिहाँ से ख़ाली है
कहीं ज़मीं भी किसी आसमाँ से ख़ाली है

नशात-ए-ग़म में तो दर्द-ए-निहाँ तलाश न कर
नशात-ए-ग़म कभी दर्द-ए-निहाँ से ख़ाली है

उरूज-ए-ग़म मिरे सोज़-ए-जिगर से आ पूछा
मक़ाम-ए-दिल कहीं सोज़-ए-निहाँ से ख़ाली है

ख़याल उस का मैं शायद समझ नहीं पाया
मिरा ख़याल तो इश्क़-ए-बुताँ से ख़ाली है

इक ऐसी बात ही तस्कीन-ए-क़ल्ब बख़्शे है
'निसार' दिल मिरा वहम-ओ-गुमाँ से ख़ाली है