EN اردو
मक़ाम-ए-दिल बहुत ऊँचा बना है | शाही शायरी
maqam-e-dil bahut uncha bana hai

ग़ज़ल

मक़ाम-ए-दिल बहुत ऊँचा बना है

अख़्तर ओरेनवी

;

मक़ाम-ए-दिल बहुत ऊँचा बना है
कमंद-ए-अक़्ल अब तक ना-रसा है

फ़रोग़-ए-इश्क़ से बेताब जल्वे
हरीम-ए-नाज़ में महशर बपा है

मिज़ाज-ए-हुस्न में ये दर्द-मंदी
ब-फ़ैज़-ए-इश्क़ क्या से क्या हुआ है

ख़िरद है जुस्तुजू-ए-सोज़-ए-आतिश
मोहब्बत आरज़ू-ए-बरमला है

नवाज़िश उन की मुहताज-ए-मोहब्बत
मिरी कम-माएगी का आसरा है

चमन की निकहत-अफ़्शानी का बाइ'स
ये मौज-ए-गुल है या मौज-ए-सबा है

भला क्यूँ हो तुझे मेरी ज़रूरत
कि तू सारे ज़माने का ख़ुदा है