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मक़ाम-ए-अम्न क़फ़स क्या कि आशियाँ भी नहीं | शाही शायरी
maqam-e-amn qafas kya ki aashiyan bhi nahin

ग़ज़ल

मक़ाम-ए-अम्न क़फ़स क्या कि आशियाँ भी नहीं

मक़बूल नक़्श

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मक़ाम-ए-अम्न क़फ़स क्या कि आशियाँ भी नहीं
सुकूँ वहाँ भी नहीं था सुकूँ यहाँ भी नहीं

मिरा कलाम पयाम-ए-अमल न हो लेकिन
तमाम-तर निगह-ओ-दिल की दास्ताँ भी नहीं

मिरी निगाह में मंज़िल है आम इंसाँ की
मक़ाम-ए-दार नहीं बज़्म-ए-मह-रुख़ाँ भी नहीं

ये बार शिद्दत-ए-एहसास का है नादानो
गराँ है ज़ीस्त मगर इस क़दर गराँ भी नहीं

है नक़्श-ए-ख़ून-ए-जिगर से हर एक फ़न को सबात
जो ये नहीं तो कोई नक़्श-ए-जावेदाँ भी नहीं