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'मंज़ूर' लहू की बूँद कोई अब तक न मिरी बेकार गिरी | शाही शायरी
manzur lahu ki bund koi ab tak na meri bekar giri

ग़ज़ल

'मंज़ूर' लहू की बूँद कोई अब तक न मिरी बेकार गिरी

मलिकज़ादा मंज़ूर अहमद

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'मंज़ूर' लहू की बूँद कोई अब तक न मिरी बेकार गिरी
या रंग-ए-हिना बन कर चमकी या पेश-ए-सलीब-ओ-दार गिरी

औरों पे न जाने क्या गुज़री इस तेग़-ओ-तबर के मौसम में
हम सर तो बचा लाए लेकिन दस्तार सर-ए-बाज़ार गिरी

जो तीर अंधेरे से थे चले वो सरहद-ए-जाँ को छू न सके
चलता था मैं जिस के साए में गर्दन पे वही तलवार गिरी

क्या जानिए कैसी थी वो हवा चौंका न शजर पत्ता न हिला
बैठा था मैं जिस के साए में 'मंज़ूर' वही दीवार गिरी