मंज़िलों का निशान कब देगा
आह को आसमान कब देगा
अज़्मतों का निशान कब देगा
मेरे हक़ में बयान कब देगा
ज़ुल्म तो बे-ज़बान है लेकिन
ज़ख़्म को तू ज़बान कब देगा
सुब्ह सज्दे समेटे सोई है
पर अँधेरा अज़ान कब देगा
इन ठिठुरते हुए उजालों को
धूप सा साएबान कब देगा
मौज माही निगल न जाए कहीं
नूह सा निगहबान कब देगा
मुझ को जंगल दिया है जीने को
बुज़दिलों को मचान कब देगा
बस यही पूछना है उस से 'निज़ाम'
पर दिए हैं उड़ान कब देगा
ग़ज़ल
मंज़िलों का निशान कब देगा
शीन काफ़ निज़ाम