EN اردو
मंज़िलों का निशान कब देगा | शाही शायरी
manzilon ka nishan kab dega

ग़ज़ल

मंज़िलों का निशान कब देगा

शीन काफ़ निज़ाम

;

मंज़िलों का निशान कब देगा
आह को आसमान कब देगा

अज़्मतों का निशान कब देगा
मेरे हक़ में बयान कब देगा

ज़ुल्म तो बे-ज़बान है लेकिन
ज़ख़्म को तू ज़बान कब देगा

सुब्ह सज्दे समेटे सोई है
पर अँधेरा अज़ान कब देगा

इन ठिठुरते हुए उजालों को
धूप सा साएबान कब देगा

मौज माही निगल न जाए कहीं
नूह सा निगहबान कब देगा

मुझ को जंगल दिया है जीने को
बुज़दिलों को मचान कब देगा

बस यही पूछना है उस से 'निज़ाम'
पर दिए हैं उड़ान कब देगा