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मंज़िलें और भी हैं वहम-ओ-गुमाँ से आगे | शाही शायरी
manzilen aur bhi hain wahm-o-guman se aage

ग़ज़ल

मंज़िलें और भी हैं वहम-ओ-गुमाँ से आगे

ओबैदुर् रहमान

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मंज़िलें और भी हैं वहम-ओ-गुमाँ से आगे
हम को करना है सफ़र क़ैद-ए-मकाँ से आगे

पैकर-ए-शेर को मल्बूस अता क्या कीजे
जब तख़य्युल की हो पर्वाज़ बयाँ से आगे

आब और ख़ाक की ये बज़्म हमें क्या रास आती
हम को जाना था सितारों के जहाँ से आगे

कब तलक दैर-ओ-हरम की ये हदीस-ए-बे-सूद
मसअले और हैं नाक़ूस-ओ-अज़ाँ से आगे

जुस्तुजू और है कुछ अहल-ए-जुनूँ की वर्ना
कौन करता है सफ़र जा-ए-अमाँ से आगे

कर्ब को अपने तमाशा न बनाया जाए
है अदब-गाह-ए-वफ़ा आह-ओ-फ़ुग़ाँ से आगे

नज़्र-ए-अंदेशा न हो जाए कहीं ज़ीस्त 'उबैद'
बात कुछ और करें सूद-ओ-ज़ियाँ से आगे