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मंज़िल न कोई मोड़ न रस्ता दिखाई दे | शाही शायरी
manzil na koi moD na rasta dikhai de

ग़ज़ल

मंज़िल न कोई मोड़ न रस्ता दिखाई दे

मीर नक़ी अली ख़ान साक़िब

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मंज़िल न कोई मोड़ न रस्ता दिखाई दे
आलम तमाम धुँद में लिपटा दिखाई दे

क़ातिल दिखाई दे न मसीहा दिखाई दे
हर शख़्स इक फ़रेब-ए-तमाशा दिखाई दे

वैसे तो ज़िंदगी है उजालों का शहर भी
देखो तो मक़बरों का अंधेरा दिखाई दे

जाऊँ उधर तो एक समुंदर है बे-कराँ
देखो इधर तो प्यास का सहरा दिखाई दे

रंगीन है क़त्ल-ए-गुल से अभी दामन-ए-बहार
दस्त-ए-हवस से ख़ून टपकता दिखाई दे

तहतुश-शुऊर में है जो इक लम्हा-ए-ख़्याल
लफ़्ज़ों की सीढ़ियों से उतरता दिखाई दे

सुनता हूँ साअ'तों में निगार-ए-सहर की चाप
मंज़र नक़ाब-ए-शाम उलटता दिखाई दे

ढूँडो किसी हसीन ख़राबे में ज़िंदगी
ये दिल तो साधुओं का बसेरा दिखाई दे

अर्ज़-ए-दकन में बात चली है कुछ इस तरह
'साक़िब' दयार-ए-शेर में तन्हा दिखाई दे