मंज़िल की धूम धाम से जब जी उचट गया
रह-गीर जैसे सैंकड़ों रस्तों में बट गया
अफ़्सोस दिल तक आने की राहें न खुल सकीं
कोई फ़क़त ख़याल तक आ कर पलट गया
हम तौल बैठे सुब्ह-दम इंसाँ को साए से
सूरज के सर पे आते ही साया सिमट गया
क्या जाने किस चटान से टकरा गया है दिल
चलता हुआ सफ़ीना अचानक उलट गया
अब कोई ढूँड-ढाँड के लाओ नया वजूद
इंसान तो बुलंदी-ए-इंसाँ से घट गया
मंज़िल पे गर्द-ए-वहम-ओ-गुमाँ थी वो धुल गई
रस्ते में अक़्ल ओ होश का पत्थर था हट गया
महफ़िल भी नूर-बार है साक़ी भी ख़ुम ब-दोश
मेरे ही नाव नोश का मेयार घट गया
मंज़िल कहीं मिली न मिली लेकिन ऐ 'रज़ा'
मंज़िल के इश्तियाक़ में रस्ता तो कट गया
ग़ज़ल
मंज़िल की धूम धाम से जब जी उचट गया
कालीदास गुप्ता रज़ा