मंज़िल के दूर दूर तक आसार तक भी नहीं
मैं राह में ठहरने को तय्यार भी नहीं
हालात कह रहे हैं कि इस दौर-ए-नौ के लोग
सोए हुए नहीं हैं तो बेदार भी नहीं
मुझ को अगर पढ़ा तो भुला पाएगा न वो
मैं हर नज़र में सुब्ह का अख़बार भी नहीं
जो दूसरों के घर में उजाला न कर सके
मैं ऐसी रौशनी का तलबगार भी नहीं
'नाज़िर' मता-ए-दिल ये कहाँ ले के आ गए
पहली सी अब वो गर्मी-ए-बाज़ार भी नहीं
ग़ज़ल
मंज़िल के दूर दूर तक आसार तक भी नहीं
नाज़िर सिद्दीक़ी