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मंज़िल के दूर दूर तक आसार तक भी नहीं | शाही शायरी
manzil ke dur dur tak aasar tak bhi nahin

ग़ज़ल

मंज़िल के दूर दूर तक आसार तक भी नहीं

नाज़िर सिद्दीक़ी

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मंज़िल के दूर दूर तक आसार तक भी नहीं
मैं राह में ठहरने को तय्यार भी नहीं

हालात कह रहे हैं कि इस दौर-ए-नौ के लोग
सोए हुए नहीं हैं तो बेदार भी नहीं

मुझ को अगर पढ़ा तो भुला पाएगा न वो
मैं हर नज़र में सुब्ह का अख़बार भी नहीं

जो दूसरों के घर में उजाला न कर सके
मैं ऐसी रौशनी का तलबगार भी नहीं

'नाज़िर' मता-ए-दिल ये कहाँ ले के आ गए
पहली सी अब वो गर्मी-ए-बाज़ार भी नहीं