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मंज़िल है कि इक रस्ता-ए-दुश्वार में गुम है | शाही शायरी
manzil hai ki ek rasta-e-dushwar mein gum hai

ग़ज़ल

मंज़िल है कि इक रस्ता-ए-दुश्वार में गुम है

नईम जर्रार अहमद

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मंज़िल है कि इक रस्ता-ए-दुश्वार में गुम है
रस्ता है कि पेच-ओ-ख़म-ए-दिलदार में गुम है

जिस दीन से मिलता था ख़ुदा ख़ाना-ए-दिल में
मुल्ला के सजाए हुए बाज़ार में गुम है

अज्ज़ा-ए-सफ़र वर्ता-ए-हैरत में पड़े हैं
रफ़्तार अभी साहिब-ए-रफ़्तार में गुम है

साइल हैं कि उमडे ही चले आते हैं पैहम
वो शोख़ मगर अपने ही दीदार में गुम है

वो हुस्न-ए-यगाना है कोई शहर-ए-तिलिस्मात
हर शख़्स जहाँ रस्तों के असरार में गुम है

अश्ख़ास के जंगल में खड़ा सोच रहा हूँ
इक नख़्ल-ए-तमन्ना इन्ही अश्जार में गुम है

या हुस्न है ना-वाक़िफ़-ए-पिंदार-ए-मोहब्बत
या इश्क़ ही आसानी-ए-अतवार में गुम है

ऐ काश समझता कोई पस-मंज़र-ए-पैग़ाम
दुनिया है कि पैराया-ए-इज़हार में गुम है