मंज़र मिरी आँखों में रहे दश्त-ए-सफ़र के
कुछ रेत के टीले दर-ओ-दीवार हैं घर के
लहरों पे मिरे पाँव जमे हैं कि सफ़र में
है शर्त ठहरना कि ज़मीं पाँव से सर के
ता-उम्र रहे जिस के लिए ज़र्रा-ए-ना-चीज़
देखे वो कभी काश बुलंदी से उतर के
पानी के कई रंग धनक में हैं कि तू है
तस्वीर में आई है तिरी शक्ल निखर के
दरिया की तरह अर्सा-ए-गुल में है रवाँ क्या
बादल की तरह देख हवाओं में ठहर के
पत्ते थे कभी सरसर-ए-तूफ़ान में टूटे
ताइर हैं कि उड़ जाएँ मिरी चाप से डर के
डूबे हैं वो यूँ सब के समुंदर में कि ग़म हैं
सूरज की चमक आँख में लाए थे जो भर के
हसरत है कि देखूँ मैं उभरता हुआ सूरज
किस कोहर में डूबे हैं दर-ओ-बाम सहर के
ग़ज़ल
मंज़र मिरी आँखों में रहे दश्त-ए-सफ़र के
सलीम शाहिद