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मंज़र झलकते चाँद का कितना हसीन था | शाही शायरी
manzar jhalakte chand ka kitna hasin tha

ग़ज़ल

मंज़र झलकते चाँद का कितना हसीन था

मंज़ूर आरिफ़

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मंज़र झलकते चाँद का कितना हसीन था
उस की क़बा की तरह वो बादल महीन था

हैराँ है मुझ को देख के क्यूँ टूटता दरख़्त
मैं उग रहा हूँ अब कि मैं ज़ेर-ए-ज़मीन था

अब खुल गया है मुझ से तो हद से गुज़र गया
वर्ना वो देखने में तो बेहद मतीन था

मैं होश-मंद रह के भी नादान ही रहा
जज़्बात में वो बह के भी कितना ज़हीन था

तुझ को रहा न अपने ज़र-ए-ग़म का ए'तिमाद
वर्ना ये दिल तो दर्द-ए-जहाँ का अमीन था

'आरिफ़' ज़बान उस की न देती थी दिल का साथ
इंकार कर के आएगा मुझ को यक़ीन था