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मंज़र-ए-ख़ेमा-ए-शब देखने वाला होगा | शाही शायरी
manzar-e-KHema-e-shab dekhne wala hoga

ग़ज़ल

मंज़र-ए-ख़ेमा-ए-शब देखने वाला होगा

सलीम सिद्दीक़ी

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मंज़र-ए-ख़ेमा-ए-शब देखने वाला होगा
वो चराग़ों को बुझाएगा उजाला होगा

शरबती आँखों में काजल वो लगाएगा अभी
रात का रंग अभी और भी काला होगा

मुझ को ठहरे हुए साहिल से नहीं थी उम्मीद
मुझ को बहते हुए पानी ने सँभाला होगा

आज फिर उस ने हथेली को छुपाया माँ से
आज फिर हाथ में उजरत नहीं छाला होगा

ज़िंदगी पलकें बिछा दे कि बड़ी मुश्किल से
मौत ने तेरे लिए वक़्त निकाला होगा