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मंज़र-ए-चश्म जो पुर-आब हुआ जाता है | शाही शायरी
manzar-e-chashm jo pur-ab hua jata hai

ग़ज़ल

मंज़र-ए-चश्म जो पुर-आब हुआ जाता है

कौसर मज़हरी

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मंज़र-ए-चश्म जो पुर-आब हुआ जाता है
चमन-ए-दिल मिरा शादाब हुआ जाता है

वही क़तरा जो कभी कुंज-ए-सर-ए-चश्म में था
अब जो फैला है तो सैलाब हुआ जाता है

एक एहसास था जो ग़म से दबा रहता था
साज़-ए-ग़म का वही मिज़राब हुआ जाता है

उस की पलकों पे जो चमका था सितारा कोई
देखते देखते महताब हुआ जाता है

वो जो शीरीं-दहन इस शहर में आया है मिरे
उस का बोला हुआ शहदाब हुआ जाता है

मुझ को मालूम है गिर्दाब-ए-नज़र का धोका
जो भी अहमक़ है वो बेताब हुआ जाता है