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मंसब न कुलाह चाहता हूँ | शाही शायरी
mansab na kulah chahta hun

ग़ज़ल

मंसब न कुलाह चाहता हूँ

इफ़्तिख़ार आरिफ़

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मंसब न कुलाह चाहता हूँ
तन्हा हूँ गवाह चाहता हूँ

ऐ अजर-ए-अज़ीम देने वाले!
तौफ़ीक़-ए-गुनाह चाहता हूँ

मैं शोलगी-ए-वजूद के बीच
इक ख़त्त-ए-सियाह चाहता हूँ

डरता हूँ बहुत बुलंदियों से
पस्ती से निबाह चाहता हूँ

वो दिन कि तुझे भी भूल जाऊँ
उस दिन से पनाह चाहता हूँ