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मनाज़िर में नया इक हुस्न अयाँ होता | शाही शायरी
manazir mein naya ek husn ayan hota

ग़ज़ल

मनाज़िर में नया इक हुस्न अयाँ होता

रब नवाज़ माइल

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मनाज़िर में नया इक हुस्न अयाँ होता
फ़सुर्दा-पा से लम्हों का बयाँ होता

मगर होते न जो इक याद के जुगनू
असासा हस्त-ए-शब का क्या यहाँ होता

लहू ठहरे मता-ए-हस्त-ए-सद-अतवार
लहू से यूँ भी रौशन-तर जहाँ होता

किसे बतलाएँ ऐसी ताज़ा सी ख़्वाहिश
तसलसुल से दुखों ही का समाँ होता

इधर उक्ताहटें हैं नौ-ब-नौ माइल
हमें जीने को तारों का जहाँ होता