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ममता-भरी निगाह ने रोका तो डर लगा | शाही शायरी
mamta-bhari nigah ne roka to Dar laga

ग़ज़ल

ममता-भरी निगाह ने रोका तो डर लगा

पी पी श्रीवास्तव रिंद

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ममता भरी निगाह ने रोका तो डर लगा
जब भी शिकार ज़ीन से बाँधा तो डर लगा

तन्हा फ़सील-ए-शहर पे बैठी हुई थी शाम
जब धुँदलकों ने शोर मचाया तो डर लगा

अपने सरों पे पगड़ियाँ बाँधे हुए थे लफ़्ज़
मज़मून जब नया कोई बाँधा तो डर लगा

बुझते हुए अलाव में आतिश-फ़िशाँ भी थे
कोहराम रतजगों ने मचाया तो डर लगा

अब दलदली ज़मीन भी तो हम-सफ़र नहीं
दश्त-ए-सराब-ए-संग से गुज़रा तो डर लगा

वीरान साअतों के थे ये आख़िरी नुक़ूश
बे-सम्तियों ने हम को बताया तो डर लगा

आसूदगी ने थपकियाँ दे कर सुला दिया
घर की ज़रूरतों ने जगाया तो डर लगा

ऐ 'रिंद' उलझनों सी रही बे-कराँ सी सोच
फ़िक्र-ए-सुख़न में दर्द जो उभरा तो डर लगा