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मलाल उम्र-ए-गुरेज़ाँ का करते रहते हैं | शाही शायरी
malal umr-e-gurezan ka karte rahte hain

ग़ज़ल

मलाल उम्र-ए-गुरेज़ाँ का करते रहते हैं

असअ'द बदायुनी

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मलाल उम्र-ए-गुरेज़ाँ का करते रहते हैं
ये लोग ज़िंदा नहीं रोज़ मरते रहते हैं

हवस का ज़ोर किसी तौर कम नहीं होता
क़नाअतों के घरौंदे बिखरते रहते हैं

दिए बुझाना गिराना गुलों को शाख़ों से
हवा के हाथ सदा काम करते रहते हैं

ये दिल गए हुए लोगों की याद से रौशन
इस आइने में बहुत अक्स उभरते रहते हैं

किसी तसलसुल-ए-ज़ंजीर के सिवा क्या हैं
जो लोग रोज़ नज़र से गुज़रते रहते हैं

गली में घूम रहे हैं फ़िराक़ के आसेब
मकान बंद किए हम भी डरते रहते हैं

किसी भी ख़्वाब की तकमील ग़ैर-मुमकिन है
जो काम हो नहीं सकता वो करते रहते हैं