मलाल-ए-दिल से इलाज-ए-ग़म-ए-ज़माना किया
ज़िया-ए-मेहर से रौशन चराग़-ए-ख़ाना किया
सहर हुई तो वो आए लटों को छटकाते
ज़रा ख़याल-ए-परेशानी-ए-सबा न किया
हज़ार शुक्र कि हम मस्लहत-शनास न थे
कि हम ने जिस से किया इश्क़ वालेहाना किया
वो जिस के लुत्फ़ में बेगानगी भी शामिल थी
उसी ने आज गुज़र दिल से महरमाना किया
वो बज़्म-ए-हर्फ़ हो या महफ़िल-ए-समा-ए-ख़याल
जहाँ भी वज्द किया हम ने बे-तराना किया
ग़ज़ल
मलाल-ए-दिल से इलाज-ए-ग़म-ए-ज़माना किया
अहमद मुश्ताक़