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मकतब की आशिक़ी भी तारीख़-ए-ज़िंदगी थी | शाही शायरी
maktab ki aashiqi bhi tariKH-e-zindagi thi

ग़ज़ल

मकतब की आशिक़ी भी तारीख़-ए-ज़िंदगी थी

मुज़्तर ख़ैराबादी

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मकतब की आशिक़ी भी तारीख़-ए-ज़िंदगी थी
फ़ाज़िल था घर से मजनूँ लैला पढ़ी लिखी थी

फ़रहाद जान देगा शीरीं तबाह होगी
ये तो ख़ुदा के घर से गोया कही बदी थी

क़ुदरत के दाएरे में उस वक़्त बुत बने थे
जब ने'मत-ए-तकल्लुम तक़्सीम हो चुकी थी

का'बे में हम ने जा के कुछ और हाल देखा
जब बुत-कदे में पहुँचे सूरत ही दूसरी थी

मातम में मेरे 'मुज़्तर' वो किस अदा से आया
आँखों में कुछ नमी थी होंटों पे कुछ हँसी थी