मक्र-ए-हयात रुख़ की क़बा भी उतार दी
हम ने तड़प तड़प के ये शब भी गुज़ार दी
अब हम पे ख़ाक देखिए किस दश्त की पड़े
याँ तो अज़ान-ए-सुब्ह सर-ए-औज-ए-दार दी
अब तुम करो सुराग़-ए-जमाल-ए-बुताँ तलाश
हम ने तुम्हें अमानत-ए-चश्म-ओ-अज़ार दी
देखी हैं यूँ भी चारागरों की करामातें
ज़ख़्म-ए-लहू-लहू को दवा ख़ार ख़ार दी
यूँ भी किया है हम ने हक़-ए-दिलबरी अदा
अपनी ही जीत अपने ही हाथों से हार दी
'सालिम' ख़ुशा है उस को बहुत तुझ पे ए'तिमाद
जिस ने तुझे अज़िय्यत-ए-दिल बे-शुमार दी
ग़ज़ल
मक्र-ए-हयात रुख़ की क़बा भी उतार दी
फ़रहान सालिम