मक्का गया मदीना गया कर्बला गया
जैसा गया था वैसा ही चल फिर के आ गया
देखा हो कुछ उस आमद-ओ-शुद में तो मैं कहूँ
ख़ुद गुम हुआ हूँ बात की तह अब जो पा गया
कपड़े गले के मेरे न हों आब-दीदा क्यूँ
मानिंद-ए-अब्र-ए-दीदा-ए-तर अब तो छा गया
जाँ-सोज़ आह ओ नाला समझता नहीं हूँ मैं
यक शोला मेरे दिल से उठा था जला गया
वो मुझ से भागता ही फिरा किब्र-ओ-नाज़ से
जूँ जूँ नियाज़ कर के मैं उस से लगा गया
जोर-ए-सिपहर-ए-दूँ से बुरा हाल था बहुत
मैं शर्म-ए-ना-कसी से ज़मीं में समा गया
देखा जो राह जाते तबख़्तुर के साथ उसे
फिर मुझ शिकस्ता-पा से न इक-दम रहा गया
बैठा तो बोरिए के तईं सर पे रख के 'मीर'
सफ़ किस अदब से हम फ़ुक़रा की उठा गया
ग़ज़ल
मक्का गया मदीना गया कर्बला गया
मीर तक़ी मीर