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मकीं यहीं का है लेकिन मकाँ से बाहर है | शाही शायरी
makin yahin ka hai lekin makan se bahar hai

ग़ज़ल

मकीं यहीं का है लेकिन मकाँ से बाहर है

हसन अब्बास रज़ा

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मकीं यहीं का है लेकिन मकाँ से बाहर है
अभी वो शख़्स मिरी दास्ताँ से बाहर है

उतर भी सकता है सरतान की तरह मुझ में
वो इश्क़ जो मिरे वहम-ओ-गुमाँ से बाहर है

सवाल ये नहीं मुझ से है क्यूँ गुरेज़ाँ वो
सवाल ये है कि क्यूँ जिस्म ओ जाँ से बाहर है

न जाने कैसे तराज़ू हुआ मिरे दिल में
वो एक तीर जो तेरी कमाँ से बाहर है

मिरे वजूद का आईना पूछता है मुझे
ये अक्स कब से तिरे ख़ाक-दाँ से बाहर है

ख़ुदा-गवाह वो इस दर्जा ख़ूब-सूरत थी
कि मेरा शौक़-ए-तमाशा बयाँ से बाहर है

हमारी जेब में ख़्वाबों की रेज़गारी है
सो लेन-देन हमारा दुकाँ से बाहर है

मिरा अमीन कोई था तो वो मिरा हम-ज़ाद
और अब वही मिरे पसमाँदगाँ से बाहर है

'हसन' में हिद्दत-ए-हिज्राँ से जल भी सकता हूँ
कि मेरा जिस्म तिरे साएबाँ से बाहर है