मजबूर हूँ गुनाह किए जा रहा हूँ मैं
फ़र्द-ए-अमल सियाह किए जा रहा हूँ मैं
गो जानता भी हूँ तिरा मिलना मुहाल है
इस पर भी तेरी चाह किए जा रहा हूँ मैं
तेरा फ़रेब-ए-वा'दा बहुत कामयाब है
आँखों को फ़र्श-ए-राह किए जा रहा हूँ मैं
तक़्सीम हो रही है मिरी वुसअत-ए-नज़र
ज़र्रों को मेहर-ओ-माह किए जा रहा हूँ मैं
तेरा करम ही इस का मुहर्रिक न हो कहीं
क्या जाने क्यूँ गुनाह किए जा रहा हूँ मैं
मुझ को ख़बर है शैख़ तुझे कुछ ख़बर नहीं
क्यूँ ज़िंदगी तबाह किए जा रहा हूँ मैं
'सीमाब' दीन से भी मिरे दिल को इश्क़ है
दुनिया से भी निबाह किए जा रहा हूँ मैं
ग़ज़ल
मजबूर हूँ गुनाह किए जा रहा हूँ मैं
सीमाब बटालवी