EN اردو
मैं ज़मीं ठहरा तो उस को आसमाँ होना ही था | शाही शायरी
main zamin Thahra to usko aasman hona hi tha

ग़ज़ल

मैं ज़मीं ठहरा तो उस को आसमाँ होना ही था

इसहाक़ विरदग

;

मैं ज़मीं ठहरा तो उस को आसमाँ होना ही था
आसमाँ हो कर उसे ना-मेहरबाँ होना ही था

प्यास की तहरीर से तो ये अयाँ होना ही था
बे-निशाँ बातिल तो हक़ को जावेदाँ होना ही था

रूह की तज्सीम से मुमकिन हुई है ज़िंदगी
ला-मकाँ के वास्ते भी इक मकाँ होना ही था

वो गुनह की सरज़मीं पर जन्नतों का ख़्वाब था
इस तरह के ख़्वाब को तो राएगाँ होना ही था

कब थी फ़िरदौस-ए-बरीं में लज़्ज़त-ए-लुत्फ़-ए-गुनह
इस ज़मीं की जुस्तुजू में कुछ ज़ियाँ होना ही था

बे निशाँ रस्तों पे अब तक गामज़न है ये ज़मीं
इस लिए भी आसमाँ को बे-कराँ होना ही था

में चला था रात को भी दिन बनाने के लिए
सर पे मेरे धूप को फिर साएबाँ होना ही था