मैं यूँ तो ख़्वाब की ताबीर सोचता भी नहीं
मगर वो शख़्स मिरे रत-जगों का था भी नहीं
मिरा नसीब वो समझा न बात इशारों की
मिरा मिज़ाज कि मैं साफ़ कह सका भी नहीं
बड़ी गिराँ है मिरी जाँ ये कैफ़ियत मत पूछ
कि इन लबों पे गिला भी नहीं दुआ भी नहीं
ये ज़िंदगी के तआ'क़ुब में रोज़ का फिरना
अगरचे इस तरह जीने का हौसला भी नहीं
ये बे-नियाज़ तबीअ'त ये बे-ख़ुदी के रंग
हम अपने आप से ख़ुश भी नहीं ख़फ़ा भी नहीं
उस एक शक्ल को जिस दिन से खो दिया है 'असद'
मिरे दरीचे से अब चाँद झाँकता भी नहीं
ग़ज़ल
मैं यूँ तो ख़्वाब की ताबीर सोचता भी नहीं
सुबहान असद