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मैं वो नहीं कि ज़माने से बे-अमल जाऊँ | शाही शायरी
main wo nahin ki zamane se be-amal jaun

ग़ज़ल

मैं वो नहीं कि ज़माने से बे-अमल जाऊँ

इब्राहीम होश

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मैं वो नहीं कि ज़माने से बे-अमल जाऊँ
मिज़ाज पूछ के दार-ओ-रसन का टल जाऊँ

वो और होंगे जो हैं आज क़ैद-ए-बे-सम्ती
वही है सम्त में जिस सम्त को निकल जाऊँ

फ़रेब खा के जुनूँ अक़्ल के खिलौनों से
ख़ुदा वो वक़्त न लाए कि मैं बहल जाऊँ

मिरा वजूद है मोमी कहीं न हो ऐसा
किसी की याद की गर्मी से मैं पिघल जाऊँ

जो चाहता है कि पस्ती में गिरते गिरते बचूँ
नज़र का अपनी असा दे कि मैं सँभल जाऊँ