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मैं वो दरिया हूँ चढ़ा हो जो उतरने के लिए | शाही शायरी
main wo dariya hun chaDha ho jo utarne ke liye

ग़ज़ल

मैं वो दरिया हूँ चढ़ा हो जो उतरने के लिए

मरातिब अख़्तर

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मैं वो दरिया हूँ चढ़ा हो जो उतरने के लिए
जी रहा हूँ मैं यहाँ हम-ज़ाद मरने के लिए

चाए-ख़ाने की नाशिस्तों पर जरीदों के वरक़
पेड़ से पत्ते झड़े उड़ने बिखरने के लिए

एक मैं मद्द-ए-मुक़ाबिल वुसअत-ए-आफ़ाक़ में
और सारी ताक़तें गुमराह करने के लिए

हाफ़िज़ा वीरान होने के लिए आबाद था
नाम कुछ होंटों पे आए थे बिसरने के लिए

कार-ख़ानों को चले अम्बोह-दर-अम्बोह लोग
जानवर निकले चरागाहों में चरने के लिए

रौशनी में ख़ौफ़ का एहसास तक होता नहीं
कर दिया है ऑफ़ टेबल-लैम्प डरने के लिए