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मैं वो आतिश-ए-नफ़स हूँ आग अभी | शाही शायरी
main wo aatish-e-nafas hun aag abhi

ग़ज़ल

मैं वो आतिश-ए-नफ़स हूँ आग अभी

सरदार गेंडा सिंह मशरिक़ी

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मैं वो आतिश-ए-नफ़स हूँ आग अभी
ख़िर्मन-ए-बर्क़ में लगा दूँगा

रूठो मुझ से न वो बला हूँ मैं
रोनी सूरत को भी हँसा दूँगा

तू उठाए जो ख़ंजर-ए-पुर-ख़म
गर्दन अपनी वहीं झुका दूँगा

आह से अर्श को हिला दूँगा
कुंगर-ए-चर्ख़ को झुका दूँगा

न चलो मुझ से तुम रक़ीबों चाल
उँगलियों पर तुम्हें नचा दूँगा

वक़्त रोने के आह-ए-सोज़ाँ से
दामन-ए-अब्र को जला दूँगा

आगे मेरे न शेख़ी मार ऐ शैख़
रात का माजरा सुना दूँगा

आह को मेरी बे-असर न कहो
मैं तमाशा अभी दिखा दूँगा

तुम जो हर रोज़ कहते हो मर-मर
एक दिन मर के भी दिखा दूँगा

दूसरे को जो दोगे दिल में भी
दिल के नक़्श-ए-वफ़ा मिटा दूँगा

शैख़ चल तो शराब-ख़ाने में
मैं तुझे आदमी बना दूँगा

'मशरिक़ी' दे अगर वो जाम-ए-शराब
दिल से ग़म मैं अभी मिटा दूँगा