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मैं उस दरख़्त का बस आख़िरी ही पत्ता था | शाही शायरी
main us daraKHt ka bas aaKHiri hi patta tha

ग़ज़ल

मैं उस दरख़्त का बस आख़िरी ही पत्ता था

द्विजेंद्र द्विज

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मैं उस दरख़्त का बस आख़िरी ही पत्ता था
जिसे हमेशा हवा के ख़िलाफ़ लड़ना था

मैं ज़िंदगी में कभी इस क़दर न भटका था
कि जब ज़मीर मुझे रस्ता दिखाता था

मशीन बन तो चुका हूँ मगर नहीं भूला
कि मेरे जिस्म में दिल भी कभी धड़कता था

वो बच्चा खो गया दुनिया की भीड़ में कब का
हसीन ख़्वाबों की जो तितलियाँ पकड़ता था

फिर उस के बा'द परिंदों पे जाने क्या गुज़री
मैं एक पेड़ की शाख़ों को काट आया था

तमाम-उम्र वो आया नहीं ज़मीं पे कभी
हवा में उस ने जो सिक्का जो कभी उछाला था

मिरा वजूद भी शामिल था उस की मिट्टी में
मिरा भी खेत की फ़स्लों में कोई हिस्सा था

न जने कितनी सुरंगें निकल गईं उस से
खड़ा पहाड़ भी तो आँख का ही धोका था

जो बात बात पे खाता रहा ख़ुदा की क़सम
क़सम ख़ुदा की वही आदमी तो झूटा था

पता करो कि अभी वो बड़ा हुआ कि नहीं
बड़े दरख़्त के नीचे जो नन्हा पौदा था

उस एक शे'र पे आँखें चमक उठी उस की
वो शे'र जिस में कि रोटी का ज़िक्र आया था

हमारी ज़िंदगी थी इक तलाश पानी की
जहाँ पे रेत का 'द्विज' एक छनता दरिया था