मैं तो मक़्तल में भी क़िस्मत का सिकंदर निकला
क़ुरआ-ए-फ़ाल मिरे नाम का अक्सर निकला
था जिन्हें ज़ो'म वो दरिया भी मुझी में डूबे
मैं कि सहरा नज़र आता था समुंदर निकला
मैं ने उस जान-ए-बहाराँ को बहुत याद किया
जब कोई फूल मिरी शाख़-ए-हुनर पर निकला
शहर-वालों की मोहब्बत का मैं क़ाएल हूँ मगर
मैं ने जिस हाथ को चूमा वही ख़ंजर निकला
तू यहीं हार गया है मिरे बुज़दिल दुश्मन
मुझ से तन्हा के मुक़ाबिल तिरा लश्कर निकला
मैं कि सहरा-ए-मोहब्बत का मुसाफ़िर था 'फ़राज़'
एक झोंका था कि ख़ुश्बू के सफ़र पर निकला
ग़ज़ल
मैं तो मक़्तल में भी क़िस्मत का सिकंदर निकला
अहमद फ़राज़