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मैं तो लम्हात की साज़िश का निशाना ठहरा | शाही शायरी
main to lamhat ki sazish ka nishana Thahra

ग़ज़ल

मैं तो लम्हात की साज़िश का निशाना ठहरा

फ़ारूक़ शमीम

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मैं तो लम्हात की साज़िश का निशाना ठहरा
तू जो ठहरा तो तिरे साथ ज़माना ठहरा

आने वाले किसी मौसम से हमें क्या लेना
दिल ही जब दर्द की ख़ुशबू का ख़ज़ाना ठहरा

याद है राख-तले एक शरारे की तरह
ये जो बुझ जाए हवाओं का बहाना ठहरा

झूट सच में कोई पहचान करे भी कैसे
जो हक़ीक़त का ही मेयार फ़साना ठहरा

अक्स बिखरे हुए चेहरों के हैं हर सम्त 'शमीम'
दिल हमारा भी कोई आइना-ख़ाना ठहरा