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मैं तो कहता हूँ तुम्ही दर्द के दरमाँ हो ज़रूर | शाही शायरी
main to kahta hun tumhi dard ke darman ho zarur

ग़ज़ल

मैं तो कहता हूँ तुम्ही दर्द के दरमाँ हो ज़रूर

सलाम मछली शहरी

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मैं तो कहता हूँ तुम्ही दर्द के दरमाँ हो ज़रूर
और वो कहते हैं कि तुम आज परेशाँ हो ज़रूर

चमन-ए-शहर तो वीराँ था मगर इस घर में
इतनी निकहत है कि तुम एक गुलिस्ताँ हो ज़रूर

मुझ को दिखलाओ न अपनी ये अदा-ए-जल्वा
चलो तस्लीम कि तुम मुझ में भी पिन्हाँ हो ज़रूर

मैं कि आवारा-तरब-कोश शराबी लेकिन
तुम कि मुख़्लिस हो मिरी ज़ात पे नाज़ाँ हो ज़रूर

नज़्म-ओ-अफ़साना लिखूँ चुप रहूँ या बात करूँ
तुम ब-हर-रंग मगर मुझ में नुमायाँ हो ज़रूर

वर्ना क्यूँ आँख में आँसू हूँ ब-वक़्त-ए-दुश्नाम
दुश्मनो तुम भी मिरी ज़ीस्त के ख़्वाहाँ हो ज़रूर

दोस्तों में तो कोई तुम को न पूछेगा 'सलाम'
अज़्मत-ए-रौशनी-ए-बज़्म-ए-हरीफ़ाँ हो ज़रूर