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मैं तो इक लम्हा-ए-परीदा रहा | शाही शायरी
main to ek lamha-e-parida raha

ग़ज़ल

मैं तो इक लम्हा-ए-परीदा रहा

अली अब्बास उम्मीद

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मैं तो इक लम्हा-ए-परीदा रहा
जाने क्यूँ वो बहुत कशीदा रहा

रू-ब-रू ज़िक्र-ए-ना-शुनीदा रहा
उठ गया तो मिरा क़सीदा रहा

मैं भी बंदा ही था ख़ुदा की क़सम
ये अलग है कि बरगुज़ीदा रहा

और तो कोई ग़म न था उस को
बस मिरी चाह में तपीदा रहा

शब की पेशानी का मैं झूमर था
क्या हुआ गर हवा-गुज़ीदा रहा

मेरे हिस्से में उस सहीफ़े का
इक वरक़ था वही दरीदा रहा

कोई उम्मीद बर न आती थी
ज़िंदगी भर सितम-रसीदा रहा