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मैं तिश्ना था मुझे सर-चश्मा-ए-सराब दिया | शाही शायरी
main tishna tha mujhe sar-chashma-e-sarab diya

ग़ज़ल

मैं तिश्ना था मुझे सर-चश्मा-ए-सराब दिया

ज़ेब ग़ौरी

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मैं तिश्ना था मुझे सर-चश्मा-ए-सराब दिया
थके बदन को मिरे पत्थरों में दाब दिया

जो दस्तरस में न था मेरी वो मिला मुझ को
बिसात-ए-ख़ाक से बाहर जहान-ए-ख़्वाब दिया

अजब करिश्मा दिखाया ब-यक क़लम उस ने
हवा चिल्लाई समुंदर को नक़्श-ए-आब दिया

में राख हो गया दीवार-ए-संग तकते हुए
सुना सवाल न उस ने कोई जवाब दिया

तही-ख़ज़ाना नफ़स था बचा के क्या रखता
न उस ने पूछा न मैं ने कभी हिसाब दिया

फिर एक नक़्श का नैरंग 'ज़ेब' बिखरेगा
मिरे ग़ुबार को फिर उस ने पेच-ओ-ताब दिया