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मैं राख होता गया और चराग़ जलता रहा | शाही शायरी
main rakh hota gaya aur charagh jalta raha

ग़ज़ल

मैं राख होता गया और चराग़ जलता रहा

नज़ीर क़ैसर

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मैं राख होता गया और चराग़ जलता रहा
चराग़ जलता रहा आसमाँ पिघलता रहा

मैं बूँद बूँद जला वस्ल के किनारे पर
वो लहर लहर बदन करवटें बदलता रहा

लगी थी आग दरख़्तों के पार दरिया में
मैं देखता रहा और आफ़्ताब ढलता रहा

बस एक शाम सर-ए-दश्त-ए-कर्बला उतरी
फिर उस के ब'अद घरों से अलम निकलता रहा

गुलाब बहता रहा ख़्वाहिशों के पानी में
हवाएँ चलती रहीं और दिया मचलता रहा

अजब सफ़र था मिरे उस के दरमियाँ 'क़ैसर'
ग़ुबार उड़ता रहा और सितारा चलता रहा