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मैं परेशाँ हूँ मिलें चंद निवाले कैसे | शाही शायरी
main pareshan hun milen chand niwale kaise

ग़ज़ल

मैं परेशाँ हूँ मिलें चंद निवाले कैसे

अख़लाक़ बन्दवी

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मैं परेशाँ हूँ मिलें चंद निवाले कैसे
उस को दौलत वो मिली है कि सँभाले कैसे

उँगलियाँ अपनी नगीनों से सजाने वाले
तुझ को लगते हैं मिरे हाथ के छाले कैसे

इल्म से फेर लीं तू ने जो निगाहें अपनी
फिर तिरे ज़ेहन में फूटेंगे उजाले कैसे

देखते रह गए पानी की रवानी हम लोग
रास्ते लोगों ने दरिया में निकाले कैसे

उम्र लग जाती है इक घर को बनाने में हमें
मकड़ियाँ रोज़ ही बुन लेती हैं जाले कैसे

तू ने 'अख़लाक़' क़सम खाई थी ज़ब्त-ए-ग़म की
फिर ये पलकों पे नमी होंटों पे नाले कैसे