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मैं ने माना कि मुलाक़ात नहीं हो सकती | शाही शायरी
maine mana ki mulaqat nahin ho sakti

ग़ज़ल

मैं ने माना कि मुलाक़ात नहीं हो सकती

सय्यद मोहम्मद असकरी आरिफ़

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मैं ने माना कि मुलाक़ात नहीं हो सकती
तो क्या अब तुम से कोई बात नहीं हो सकती

दिल में रौशन हैं मिरी जाँ तिरी यादों के चराग़
शहर-ए-उल्फ़त में कभी रात नहीं हो सकती

बातिन-ए-क़ल्ब-ओ-जिगर में ही बसा ले मुझ को
ज़ाहिरन गर तू मिरे साथ नहीं हो सकती

इस का शेवा है मोहब्बत में बग़ावत करना
मो'तबर उस की कभी ज़ात नहीं हो सकती

इश्क़ का खेल भी ये सोच के मैं हार गया
सच्चे आशिक़ की कभी मात नहीं हो सकती