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मैं ने कब अपनी वफ़ाओं का सिला माँगा था | शाही शायरी
maine kab apni wafaon ka sila manga tha

ग़ज़ल

मैं ने कब अपनी वफ़ाओं का सिला माँगा था

महेंद्र प्रताप चाँद

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मैं ने कब अपनी वफ़ाओं का सिला माँगा था
इक तबस्सुम ही तिरा बहर-ए-ख़ुदा माँगा था

क्या ख़बर थी कि मिरी नींद ही उजड़ जाएँगी
मैं ने खोए हुए ख़्वाबों का पता माँगा था

दस्त-ए-गुल-चीं ने भी गुलशन से वही फूल चुना
मैं ने जिस गुल के लिए दस्त-ए-सबा माँगा था

शिद्दत-ए-ग़म में दुआ की थी तुझे भूलने की
अब भरे ज़ख़्म तो नादिम हूँ ये क्या माँगा था

बस इसी बात पे बरहम है ज़माना मुझ से
अपने बद-ख़्वाहों का भी मैं ने भला माँगा था

इक गुज़ारिश भी न हो पाई क़ुबूल उस के हुज़ूर
ग़ालिबन मैं ने ही कुछ हद से सिवा माँगा था

चूड़ियाँ टूटीं तो ज़ख़्मों से लहू रंग हुई
जिस हथेली ने ज़रा रंग-ए-हिना माँगा था

तू ने हर ग़म से नवाज़ा है तिरा ख़ास करम
मुझ को तो ये भी नहीं याद कि क्या माँगा था

आफ़तें सहने का यारा भी तो देता यार अब
और तो कुछ भी नहीं उस के सिवा माँगा था

ये अलग बात मिला कर्ब-ए-मुसलसल वर्ना
हम ने जो माँगा वो ब-सिद्क़-ओ-सफ़ा माँगा था

ज़ेहन पर 'चाँद' फिर इक बर्क़ सी लहराने लगी
दिल ने माज़ी के निहाँ-ख़ानों से क्या माँगा था