मैं नज़र से एक अंदाज़-ए-नज़र होता हुआ
कौन है दिन रात मुझ में बे-ख़बर होता हुआ
खुलता जाता है समुंदर बादबाँ-दर-बादबाँ
मैं सफ़र करता हुआ मुझ से सफ़र होता हुआ
एक वुसअत आसमाँ-दर-आसमाँ बढ़ती हुई
इक परिंदा बाल-ओ-पर में तर-ब-तर होता हुआ
एक पहनाई मकाँ से ला-मकाँ होती हुई
एक लम्हा मुख़्तसर से मुख़्तसर होता हुआ
एक अंगड़ाई से सारे शहर को नींद आ गई
ये तमाशा मैं ने देखा बाम पर होता हुआ
खींच ली किस ने तनाब-ए-ख़ेमा-ए-सिदक़-ओ-सफ़ा
कौन है इस दश्त-ए-ग़म में बे-हुनर होता हुआ
ग़ज़ल
मैं नज़र से एक अंदाज़-ए-नज़र होता हुआ
प्रेम कुमार नज़र