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मैं नज़र से एक अंदाज़-ए-नज़र होता हुआ | शाही शायरी
main nazar se ek andaz-e-nazar hota hua

ग़ज़ल

मैं नज़र से एक अंदाज़-ए-नज़र होता हुआ

प्रेम कुमार नज़र

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मैं नज़र से एक अंदाज़-ए-नज़र होता हुआ
कौन है दिन रात मुझ में बे-ख़बर होता हुआ

खुलता जाता है समुंदर बादबाँ-दर-बादबाँ
मैं सफ़र करता हुआ मुझ से सफ़र होता हुआ

एक वुसअत आसमाँ-दर-आसमाँ बढ़ती हुई
इक परिंदा बाल-ओ-पर में तर-ब-तर होता हुआ

एक पहनाई मकाँ से ला-मकाँ होती हुई
एक लम्हा मुख़्तसर से मुख़्तसर होता हुआ

एक अंगड़ाई से सारे शहर को नींद आ गई
ये तमाशा मैं ने देखा बाम पर होता हुआ

खींच ली किस ने तनाब-ए-ख़ेमा-ए-सिदक़-ओ-सफ़ा
कौन है इस दश्त-ए-ग़म में बे-हुनर होता हुआ