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मैं मोहब्बत के मारों की दुनिया से हूँ | शाही शायरी
main mohabbat ke maron ki duniya se hun

ग़ज़ल

मैं मोहब्बत के मारों की दुनिया से हूँ

मुमताज़ मालिक

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मैं मोहब्बत के मारों की दुनिया से हूँ
मुझ से कीजे वफ़ा सख़्त मुश्किल में हूँ

दूर तक दर्द की सरहदें जा चुकीं
कोई दे दो दवा सख़्त मुश्किल में हूँ

ज़िंदगी क़ैद में इक ज़माने से है
अब तो कर दो रिहा सख़्त मुश्किल में हूँ

तुझ से कोई भलाई तवक़्क़ो नहीं
कोई कर दे भला सख़्त मुश्किल में हूँ

उस की जाती है जिस की हो इज़्ज़त कोई
क्या गया है तिरा सख़्त मुश्किल में हूँ

हर-घड़ी जिस ने मुश्किल में डाला मुझे
मुझ से वो कह गया सख़्त मुश्किल में हूँ

छीन कर पूछता है ठिकाने सभी
है कहाँ आसरा सख़्त मुश्किल में हूँ

जिस को सौंपे थे दर्जे हिफ़ाज़त के वो
रहज़नों से मिला सख़्त मुश्किल में हूँ

कह के 'मुमताज़' यूँ आज़माए गए
हो गई इंतिहा सख़्त मुश्किल में हूँ

अब शश-ओ-पंज में मुझ को रहना नहीं
हो कोई फ़ैसला सख़्त मुश्किल में हूँ

भूल बैठे हैं पर्वाज़ की जब अदा
दर क़फ़स का खुला सख़्त मुश्किल में हूँ