मैं मसरूर हूँ उस से महजूर हो कर
कि मुझ से मिला वो बहुत दूर हो कर
तिरी शान-ए-जिद्दत-पसंदी के क़ुर्बां
कि मुख़्तार ठहरा मैं मजबूर हो कर
वो शक्लें जो दिल में कभी जल्वा-गर थीं
नज़र आएँ बर्क़ सर-ए-तूर हो कर
उठा डाले सारे हिजाबात मैं ने
शराब-ए-मोहब्बत से मख़मूर हो कर
उमीदों की दुनिया न हो जाए वीराँ
फ़रेब-ए-तजस्सुस न दे दूर हो कर
जो मिलना न 'साक़िब' से तुम चाहते थे
तो क्यूँ उस को आवाज़ दी दूर हो कर
ग़ज़ल
मैं मसरूर हूँ उस से महजूर हो कर
साक़िब कानपुरी