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मैं मसरूर हूँ उस से महजूर हो कर | शाही शायरी
main masrur hun us se mahjur ho kar

ग़ज़ल

मैं मसरूर हूँ उस से महजूर हो कर

साक़िब कानपुरी

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मैं मसरूर हूँ उस से महजूर हो कर
कि मुझ से मिला वो बहुत दूर हो कर

तिरी शान-ए-जिद्दत-पसंदी के क़ुर्बां
कि मुख़्तार ठहरा मैं मजबूर हो कर

वो शक्लें जो दिल में कभी जल्वा-गर थीं
नज़र आएँ बर्क़ सर-ए-तूर हो कर

उठा डाले सारे हिजाबात मैं ने
शराब-ए-मोहब्बत से मख़मूर हो कर

उमीदों की दुनिया न हो जाए वीराँ
फ़रेब-ए-तजस्सुस न दे दूर हो कर

जो मिलना न 'साक़िब' से तुम चाहते थे
तो क्यूँ उस को आवाज़ दी दूर हो कर