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मैं महल रेत के सहरा में बनाने बैठा | शाही शायरी
main mahal ret ke sahra mein banane baiTha

ग़ज़ल

मैं महल रेत के सहरा में बनाने बैठा

अज़हर नैयर

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मैं महल रेत के सहरा में बनाने बैठा
चंद अल्फ़ाज़ को माज़ी के भुलाने बैठा

हादसे से ही हुआ ग़म का मुदावा मेरे
फ़ल्सफ़ा सब्र का लोगों को पढ़ाने बैठा

थक के साए में बबूलों के सुकूँ जब चाहा
उस का हर पत्ता मुझे काँटे लगाने बैठा

जिस ने तोड़ा सभी नातों सभी रिश्तों को मिरे
उम्र भर का वही अब क़र्ज़ चुकाने बैठा

उस के तलख़ाब से कब प्यास मिरी बुझ पाई
घर समुंदर के किनारे ही बसाने बैठा

जिस्म के बख़िये जो उधड़े तो उधड़ते ही रहे
जामा रेशम का पहने को सिलाने बैठा

लोग थे गिर्द अलाव के मगर मैं 'नय्यर'
जिस्म की आग को पानी से बुझाने बैठा