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मैं क्यूँ ज़बाँ से वफ़ा का यक़ीं दिलाऊँ तुम्हें | शाही शायरी
main kyun zaban se wafa ka yaqin dilaun tumhein

ग़ज़ल

मैं क्यूँ ज़बाँ से वफ़ा का यक़ीं दिलाऊँ तुम्हें

क़ाज़ी एहतिशाम बछरौनी

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मैं क्यूँ ज़बाँ से वफ़ा का यक़ीं दिलाऊँ तुम्हें
तुम आज़माओ मुझे और मैं आज़माऊँ तुम्हें

मैं भूलने को तो इक पल में भूल जाऊँगा
ये सोचता हूँ कहीं मैं न याद आऊँ तुम्हें

मिरी ग़ज़ल है मिरी कैफ़ियत का आईना
अब और हाल-ए-दिल-ए-ज़ार क्या सुनाऊँ तुम्हें

मिरी तरफ़ से सदा बद-गुमाँ रहे हो तुम
क़रीब आओ तो मैं क्या हूँ ये बताऊँ तुम्हें

कुछ ऐसा लुत्फ़ है उस रूठने मनाने में
हज़ार बार भी रूठो तो मैं मनाऊँ तुम्हें

मेरी निगाह में कुछ इस तरह समा जाओ
निगाह ख़ुद पे भी डालों अगर तो पाँव तुम्हें

ये आरज़ू है मिरी शाइ'री में ढल जाओ
ग़ज़ल के रूप में हर लम्हा गुनगुनाऊँ तुम्हें

मुझे यक़ीं है कि तस्वीर उन की पाओगे
मैं 'एहतिशाम' जो दिल चीर के दिखाऊँ तुम्हें