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मैं किसी जवाज़ के हिसार में न था | शाही शायरी
main kisi jawaz ke hisar mein na tha

ग़ज़ल

मैं किसी जवाज़ के हिसार में न था

साक़ी फ़ारुक़ी

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मैं किसी जवाज़ के हिसार में न था
मेरा शौक़ मेरे इख़्तियार में न था

दूर नई ताक़तों ने जंग लड़ी थी
ख़ौफ़ अभी रूह के जवार में न था

सिर्फ़ मिरी ज़ात सोगवार खड़ी थी
और कोई नींद के ग़ुबार में न था

लहर के क़रीब मिरी प्यास पड़ी थी
अब्र कोई शाम के दयार में न था

याद तिरी थी कि मिरे दिल में गड़ी थी
दर्द मिरा था किसी शुमार में न था