मैं किस की खोज में इस कर्ब से गुज़रता रहा
कि शाख़ शाख़ पे खिलता रहा बिखरता रहा
मुझे तो इतनी ख़बर है कि मुश्त-ए-ख़ाक था मैं
जो चाक मोहलत-ए-गिर्या पे रक़्स करता रहा
ये साँस भर मिरे हिस्से का ख़्वाब कैसा था
कि जिस में अपने लहू से मैं रंग भरता रहा
अजीब जंग रही मेरी मेरे अहद के साथ
मैं उस के जाल को वो मेरे पर कतरता रहा
उन्हों ने मुझ को समुंदर ही देखने न दिया
कि घर का घर ही मिरे डूबने से डरता रहा
ग़ज़ल
मैं किस की खोज में इस कर्ब से गुज़रता रहा
निसार नासिक